Wednesday 26 March 2014

AZAAD MUJHE BEHNE DO

एक बूँद सी हूँ झरने में मैं ,
कि  आज  मुझे बहने दो,
ठोकर खायी हर किनारे पे  मैंने,
अब आज़ाद मुझे बहने दो,
न मंज़िल पता,
न रास्ता पता,
तोड़ती चलूँ  ये सन्नाटा वादियों का,
बनके गूँज टकराओ की ,
ज़रा ज़ोर से बहने दो,
मुझसे हे बने ये झरने, नदी और सागर,
कभी तूफ़ान न बनू मैं,
धीमी रफ़्तार से बहने दो,
चाहे दिन ढले या हो रात अँधेरी,
चुप चाप दबे पाओ,
बिन आवाज़ मुझे बहने दो,
मुझे बहना है दर्रे-दर्रे (घाटी)  में,
सिमट कर एक धारा  में,
किनारों  को छू जाऊं,
इस कदर मुझे बहने दो,
बना सकू हमराही एक पत्थर को अपना ,
थम कर दो पल पास उसके,
कि दर्द ठोकरों का आज उससे कहने दो,
अनगिनत बूंदों से जो बनता है झरना,
उस झरने में ही बहती एक बूँद हु मैं,
मिल जायेगी मुझे मेरी मंज़िल कहीं किसी  न किसी नदी या सागर में,
तलाशने को बस वो मंज़िल मुझे,
आज़ाद रास्तों में तब तक मुझे बहने दो,
बस तब तलक मुझे बहने दो ...........

-सिमरन कौर   

4 comments:

  1. तमाम उम्र चलता रहा , पर घऱ नहीं आया,……एक बार जो चल पड़ा घर से, …करार नहीं आया , ...

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