Sunday 27 July 2014

JALTA DEEPAK - JALTI CHAHAT

जलाऊ जो दीपक उसकी चाह में,
तो ये हवा भी उसे बुझा देती है,
हवा भी हंसकर चाहत पे मेरी,
अक्सर मुझे रुला देती है,
मुद्दत हो गयी जले जिस लौ को,
बचाऊ जो हवा से,
तो हाथ मेरा जला  देती है,
जलाऊ जो दीपक उसकी चाह में,
तो ये हवा भी उसे बुझा देती है …… 

है नही ये कोई दीपक ख़ाकसारी ,
है कहीं जुड़ी इससे चाहत हमारी,
समझने वाले इसे ,
खाकसार समझ बैठे,
किसी क्या पता इस दीपक पर ,
हम अपने जलते दिल का ,
हर हाल वार बैठे,
जिसकी चाहत में लड़ते रहे हवा से हम,
इस जंग में हम खुद को मार बैठे,
चाहते तो थे ये सिलसिला सदियों तक,
की जब जब बुझाए ये हवा इस लौ को,
ये जल खुद ही  बार बार बैठे,
इतना ना कर घमंड ऐ हवा,
की एक दिन तू इस खाकसार दीपक से ही हार बैठे ……………
इस खाकसार दीपक से ही हार बैठे ………………
 

-सिमरन कौर

Thursday 24 July 2014

SOCHO KABHI EK LAMHA AISA

सूनी राह हो,
हाथ तुम्हारा हो,
सन्नाटे की खूबसूरती में,
गूंजता प्यार हमारा हो,
सोचो कभी एक लम्हा ऐसा,
चाहत के सफर पर,
स्वागत हमारा हो,
सूनी राह हो,
और हाथ तुम्हारा हो..............

नीले आसमान के तले,
एक बादल हमारा  हो,
लिखे जो नाम उसपर,
मिटना ना उसको गवारा हो,
गर मिट  भी जाए हवा से बादल,
आसमान में फ़ैल जाए,
ऐसा प्यार हमारा हो,
सोचो कभी एक लम्हा ऐसा,
सूनी राह हो,
और हाथ तुम्हारा हो...........

सुनेहरा  सफर हो,
हर कदम साथ तुम्हारा हो,
हर फूल भी हो गवाह हमारा,
अटूट साथ हमारा हो,
गर कभी ख़त्म हो जाये राह कहीं,
दुआ मेरी बस मेरे मुक़ददर में,
हर जनम साथ हमारा हो,
सिर्फ नाम तुम्हारा हो,
सोचो कभी एक लम्हा ऐसा,
न सूनी कोई राह रहे,
गर सदा मेरे हाथ में,
हाथ तुम्हारा हो.……………
ज़िंदा रहे हर कदम कदम पर,
ऐसा प्यार हमारा हो..........
ऐसा प्यार हमारा हो..........


- सिमरन कौर 

Friday 18 July 2014

SAY NO TO CHILD LABOUR & CHILD ABUSE

उठता हूँ मैं पहली किरण से,
स्कूल के लिए नहीं ,
मैं काम पर जाता हूँ,
हूँ मैं नौकर एक मामूली से ढाबे का,
जहाँ गालियाँ अक्सर अपने मालिक से  खाता हूँ,
वो दस  मिनट ढाबे तक की दूरी,
बहुत मुश्किल से काट पाटा हूँ,
जब देखता हूँ सुबह बच्चों को बस्ता टांगे,
तो नसीब पे अपने मैं अक्सर रो जाता हूँ,
होनी चाहिए जिन हाथों में रंग बिरंगी किताबें ,
उन हाथों में हमेशा मैं एक पोछा ही पाता  हूँ,
खेल-कूद से भरा होता है जिन बच्चों का बचपन,
उस  बचपन को ख्वाबों में भी,
मैं खोया सा पाता हूँ,
मिलते हैं मुझको जो टिप के पैसे,
 दे सकू एक गुब्बारा खुद को,
मैं मन  को मारकर अपने,
वो पैसे बचाता  हूँ,
कभी  होती है ताप्ती गर्मी,
तो कभी कड़कड़ाती ठण्ड,
देर से पहुंचने पर ,
मैं अक्सर मालिक से मार भी खाता हूँ,
इस बचपन में भी कमाने को चार पैसे,
मैं हर अन्याय को हॅंस कर सह जाता हूँ,
उठता हूँ मैं पहली किरण से,
स्कूल के लिए नहीं,
मैं रोज काम पर जाता हूँ,
बचपन को अपने मैं,
आग में झोंक कर,
मैं पैसे कमाता हूँ,
क्यूंकि मैं काम पर जाता हूँ .............
क्यूंकि मैं काम पर जाता हूँ .............


- सिमरन कौर