उठता हूँ मैं पहली किरण से,
स्कूल के लिए नहीं ,
मैं काम पर जाता हूँ,
हूँ मैं नौकर एक मामूली से ढाबे का,
जहाँ गालियाँ अक्सर अपने मालिक से खाता हूँ,
वो दस मिनट ढाबे तक की दूरी,
बहुत मुश्किल से काट पाटा हूँ,
जब देखता हूँ सुबह बच्चों को बस्ता टांगे,
तो नसीब पे अपने मैं अक्सर रो जाता हूँ,
होनी चाहिए जिन हाथों में रंग बिरंगी किताबें ,
उन हाथों में हमेशा मैं एक पोछा ही पाता हूँ,
खेल-कूद से भरा होता है जिन बच्चों का बचपन,
उस बचपन को ख्वाबों में भी,
मैं खोया सा पाता हूँ,
मिलते हैं मुझको जो टिप के पैसे,
दे सकू एक गुब्बारा खुद को,
मैं मन को मारकर अपने,
वो पैसे बचाता हूँ,
कभी होती है ताप्ती गर्मी,
तो कभी कड़कड़ाती ठण्ड,
देर से पहुंचने पर ,
मैं अक्सर मालिक से मार भी खाता हूँ,
इस बचपन में भी कमाने को चार पैसे,
मैं हर अन्याय को हॅंस कर सह जाता हूँ,
उठता हूँ मैं पहली किरण से,
स्कूल के लिए नहीं,
मैं रोज काम पर जाता हूँ,
बचपन को अपने मैं,
आग में झोंक कर,
मैं पैसे कमाता हूँ,
क्यूंकि मैं काम पर जाता हूँ .............
क्यूंकि मैं काम पर जाता हूँ .............
- सिमरन कौर
स्कूल के लिए नहीं ,
मैं काम पर जाता हूँ,
हूँ मैं नौकर एक मामूली से ढाबे का,
जहाँ गालियाँ अक्सर अपने मालिक से खाता हूँ,
वो दस मिनट ढाबे तक की दूरी,
बहुत मुश्किल से काट पाटा हूँ,
जब देखता हूँ सुबह बच्चों को बस्ता टांगे,
तो नसीब पे अपने मैं अक्सर रो जाता हूँ,
होनी चाहिए जिन हाथों में रंग बिरंगी किताबें ,
उन हाथों में हमेशा मैं एक पोछा ही पाता हूँ,
खेल-कूद से भरा होता है जिन बच्चों का बचपन,
उस बचपन को ख्वाबों में भी,
मैं खोया सा पाता हूँ,
मिलते हैं मुझको जो टिप के पैसे,
दे सकू एक गुब्बारा खुद को,
मैं मन को मारकर अपने,
वो पैसे बचाता हूँ,
कभी होती है ताप्ती गर्मी,
तो कभी कड़कड़ाती ठण्ड,
देर से पहुंचने पर ,
मैं अक्सर मालिक से मार भी खाता हूँ,
इस बचपन में भी कमाने को चार पैसे,
मैं हर अन्याय को हॅंस कर सह जाता हूँ,
उठता हूँ मैं पहली किरण से,
स्कूल के लिए नहीं,
मैं रोज काम पर जाता हूँ,
बचपन को अपने मैं,
आग में झोंक कर,
मैं पैसे कमाता हूँ,
क्यूंकि मैं काम पर जाता हूँ .............
क्यूंकि मैं काम पर जाता हूँ .............
- सिमरन कौर
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