Saturday 22 February 2014

रीत-ऐ-बिदाई

चली रे बाबा अब तेरी गुड़िया चली ,
थाम के हाथ अपने पिया कि गली,
कि रौनकें मेरी अब वहाँ  महकेंगी ,
यहाँ तो अब सदा मेरी यादें चेहकेंगी,
कि अब तो मैं  कभी माँ के दिल में,
या तो बाबा तेरे होंठों पे मुस्कान बन के आऊँगी ,
 ये बाबुल कि गलियों में तो अब मैं  परायी हे कहलाऊंगी,
जानती हूँ कि माँ अक्सर मुझे याद करेगी,
कभी भूल से मेरा नाम भी ले बैठेगी,
फिर याद करेगी कि कल ही  तो उसकी लाडली उसके पास थी ,
जब गोद में सर रख कर सोयी थी,
वो कल हे कि तो रात थी,
जब मेहँदी शगुन कि उसने मेरे हाथों पे लगायी थी,
बेटियों को जो पराया कर  जाए आखिर ये रीत ही क्यों बनायीं थी,
सम्भाल लेना बाबा कि ये सोच माँ कहीं रो न दे,
याद में मेरी खुद को कहीं खो ना दे,
कह के इतना बस माँ को मना लेना,
कुछ खट्टी मीठी यादों से माँ को हँसा देना,
कि फूलों से सजी डोली में जिस बेटी को बिठाया था ,
आखिर बचपन से इस दिन का ख्वाब हमने ही तो सजाया था,
जिन नन्हे क़दमों से तेरी बेटी इस आँगन में थी आयी,
क्या पता था लांघ के ये देहलीज़ मुझे,
निभानी पड़ेगी एक दिन ये रस्म-ऐ-बिदाई,
हो चली अब परायी,
चली रे बाबा अब तेरी गुड़िया चली,
सवार सजी डोली में छोड़ बाबुल कि गली ,
कि रौनकें अब मेरी पिया घर में महकेंगी,
अब तो बस इस आँगन में सदा मेरी यादें चेहकेंगी ……… 
सदा मेरी यादें चेहकेंगी .......  

-सिमरन कौर 

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