जलाऊ जो दीपक उसकी चाह में,
तो ये हवा भी उसे बुझा देती है,
हवा भी हंसकर चाहत पे मेरी,
अक्सर मुझे रुला देती है,
मुद्दत हो गयी जले जिस लौ को,
बचाऊ जो हवा से,
तो हाथ मेरा जला देती है,
जलाऊ जो दीपक उसकी चाह में,
तो ये हवा भी उसे बुझा देती है ……
है नही ये कोई दीपक ख़ाकसारी ,
है कहीं जुड़ी इससे चाहत हमारी,
समझने वाले इसे ,
खाकसार समझ बैठे,
किसी क्या पता इस दीपक पर ,
हम अपने जलते दिल का ,
हर हाल वार बैठे,
जिसकी चाहत में लड़ते रहे हवा से हम,
इस जंग में हम खुद को मार बैठे,
चाहते तो थे ये सिलसिला सदियों तक,
की जब जब बुझाए ये हवा इस लौ को,
ये जल खुद ही बार बार बैठे,
इतना ना कर घमंड ऐ हवा,
की एक दिन तू इस खाकसार दीपक से ही हार बैठे ……………
इस खाकसार दीपक से ही हार बैठे ………………
-सिमरन कौर
तो ये हवा भी उसे बुझा देती है,
हवा भी हंसकर चाहत पे मेरी,
अक्सर मुझे रुला देती है,
मुद्दत हो गयी जले जिस लौ को,
बचाऊ जो हवा से,
तो हाथ मेरा जला देती है,
जलाऊ जो दीपक उसकी चाह में,
तो ये हवा भी उसे बुझा देती है ……
है नही ये कोई दीपक ख़ाकसारी ,
है कहीं जुड़ी इससे चाहत हमारी,
समझने वाले इसे ,
खाकसार समझ बैठे,
किसी क्या पता इस दीपक पर ,
हम अपने जलते दिल का ,
हर हाल वार बैठे,
जिसकी चाहत में लड़ते रहे हवा से हम,
इस जंग में हम खुद को मार बैठे,
चाहते तो थे ये सिलसिला सदियों तक,
की जब जब बुझाए ये हवा इस लौ को,
ये जल खुद ही बार बार बैठे,
इतना ना कर घमंड ऐ हवा,
की एक दिन तू इस खाकसार दीपक से ही हार बैठे ……………
इस खाकसार दीपक से ही हार बैठे ………………
-सिमरन कौर
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